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श॒तं मे॒षान्वृ॒क्ये॑ मामहा॒नं तम॒: प्रणी॑त॒मशि॑वेन पि॒त्रा। आक्षी ऋ॒ज्राश्वे॑ अश्विनावधत्तं॒ ज्योति॑र॒न्धाय॑ चक्रथुर्वि॒चक्षे॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

śatam meṣān vṛkye māmahānaṁ tamaḥ praṇītam aśivena pitrā | ākṣī ṛjrāśve aśvināv adhattaṁ jyotir andhāya cakrathur vicakṣe ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

श॒तम्। मे॒षान्। वृ॒क्ये॑। म॒म॒हा॒नम्। तमः॑। प्रऽणी॑तम्। अशि॑वेन। पि॒त्रा। आ। अ॒क्षी इति॑। ऋ॒ज्रऽअ॑श्वे। अ॒श्वि॒नौ॒। अ॒ध॒त्त॒म्। ज्योतिः॑। अ॒न्धाय॑। च॒क्र॒थुः॒। वि॒ऽचक्षे॑ ॥ १.११७.१७

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:117» मन्त्र:17 | अष्टक:1» अध्याय:8» वर्ग:16» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:17» मन्त्र:17


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अश्विनौ) सभा सेनाधीशो ! तुम दोनों जिस (अशिवेन) अमङ्गलकारी (पित्रा) प्रजा पालनेहारे न्यायाधीश ने (तमः) दुःखरूप अन्धकार (प्रणीतम्) भली-भाँति पहुँचाया उस (वृक्ये) भेड़िनी के लिये (शतम्) सैकड़ों (मेषान्) मेढ़ों को (मामहानम्) देते हुए के समान प्रजाजनों को पीड़ा देते हुए राज्याधिकारी को छुड़ाओ, अलग करो (ऋज्राश्वे) अच्छे सीखे हुए घोड़े आदि पदार्थों से युक्त सेना में (अक्षी) आँखों का (आ, अधत्तम्) आधान करो अर्थात् दृष्टि देओ, वहाँ के बने-बिगड़े व्यवहार को विचारो और (अन्धाय) अन्धे के समान अज्ञानी के लिये (विचक्षे) विज्ञानपूर्वक देखने के लिये (ज्योतिः) विद्याप्रकाश को (चक्रथुः) प्रकाशित करो ॥ १७ ॥
भावार्थभाषाः - हे सभासेना आदि के पुरुषो ! तुम लोग प्रजाजनों में अन्याय से भेड़िनी अपने प्रयोजन के लिये भेड़ बकरों में जैसे प्रवृत्त होते हैं, वैसे वर्त्ताव रखनेवाले अपने भृत्यों को अच्छे दण्ड देकर अन्य धर्मात्मा भृत्यों से प्रजाजनों में सूर्य्य के समान रक्षा आदि व्यवहारों को निरन्तर प्रकाशित करो। जैसे आँखवाला कुएँ से अन्धे को बचाकर सुख देता है, वैसे अन्याय करनेवाले भृत्यों से पीड़ा को प्राप्त हुए प्रजाजनों को अलग रक्खो ॥ १७ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे अश्विनौ युवां येनाशिवेन पित्रा तमः प्रणीतं तं वृक्ये शतं मेषान् मामहानमिव प्रजाजनान् पीडयन्तं मुञ्चतं पृथक्कुर्य्यातम्। ऋज्राश्वे अक्षी चक्षुषी आधत्तम्। अन्धाय विचक्षे ज्योतिश्चक्रथुः ॥ १७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (शतम्) (मेषान्) (वृक्ये) वृकस्त्रियै (मामहानम्) दत्तवन्तम् (तमः) अन्धकाररूपं दुःखम् (प्रणीतम्) प्रकृष्टतया प्रापितम् (अशिवेन) अमङ्गलकारिणा न्यायाधीशेन (पित्रा) पालकेन (आ) (अक्षी) चक्षुषी (ऋज्राश्वे) सुशिक्षिततुरङ्गादियुक्ते सैन्ये (अश्विनौ) सभासेनेशौ (अधत्तम्) दध्यातम् (ज्योतिः) प्रकाशम् (अन्धाय) दृष्टिनिरुद्धायेवाज्ञानिने (चक्रथुः) कुरुतम् (विचक्षे) ॥ १७ ॥
भावार्थभाषाः - हे सभासेनेशादयो राजपुरुषा यूयं प्रजायामन्यायेन वृक्यः स्वार्थसाधनाय मेषेषु यथा प्रवर्त्तन्ते तथा प्रवर्त्तमानान् स्वभृत्यान् सम्यग्दण्डयित्वान्यैर्धार्मिकैर्भृत्यैः प्रजासु सूर्य्यवद्रक्षणादिकं सततं प्रकाशयत। यथा चक्षुष्मान् कूपादन्धं निवार्य्य सुखयति तथाऽन्यायकारिभ्यो भृत्येभ्यः पीडिताः प्रजाः पृथक् रक्षेत ॥ १७ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे सभा सेना इत्यादीच्या राजपुरुषांनो! लांडग्या जशा आपल्या प्रयोजनासाठी अन्यायपूर्वक शेळ्यामेंढ्यांवर आक्रमण करतात तसे प्रजेशी वर्तन करणाऱ्या आपल्या सेवकांना तुम्ही चांगल्या प्रकारे शिक्षा करा व इतर धर्मात्मा सेवकांकडून प्रजेचे सूर्यासारखे सतत रक्षण करा. जसा डोळस माणूस विहिरीतील अंध माणसाला वाचवून सुखी करतो तसे अन्याय करणाऱ्या सेवकांपासून त्रस्त झालेल्या प्रजेला पृथक करा. ॥ १७ ॥